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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति

१. ध्रुवमपापेऽपादानम्।

अपायो विश्लेषः तस्मिन्साध्ये ध्रुवमवधिभूतं कारकमपादानं स्यात्।

अर्थ - 'अपाय' का अर्थ है, अलग होना। अलग होने की क्रिया में जो पदार्थ ध्रुव (अवधिभूत) होता है अर्थात् जिससे अलगाव होता है उसकी अपादान कारक संज्ञा होती है।

उदाहरण - ग्रामात् आयाति (गाँव से आता है) में कोई व्यक्ति गाँव से अलग होता है सो अलग होने पर 'ग्राम' ध्रुव है अतः उसकी प्रकृत सूत्र से अपादान संज्ञा हो गयी। अपादान होने से अपादाने 'पञ्चमी सूत्र' से पञ्चमी विभक्ति हो गयी।

यहाँ 'ध्रुव' शब्द स्थिर अर्थ वाला नहीं है बल्कि पारिभाषिक रूप से अवधिभूत अर्थ लिया जाता है। इसी कारण धावत: अश्वात् पतति 'दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है। में अश्व से अलग होना पाया जाता है अतः वह ध्रुव व अवधिभूत है जिससे उसकी अपादान संज्ञा हुई तथा अपादाने पञ्चमी से पञ्चमी विभक्ति है।

२. अपादाने पञ्चमी।

ग्रामादायाति। धावतोऽश्वात्पतति। कारकं किम्? वृक्षस्य पर्णं पतति।
अथवा
धावतोऽश्वात् पतति की सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि कीजिए। 

अर्थ- अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - ग्रामात् आयाति (वह गाँव से आता है) यहाँ आगमन क्रिया में 'ग्राम' ध्रुव है अतएव 'ध्रुवमपापेऽपादानम्' सूत्र से उसकी अपादान संज्ञा हुई और प्रकृत सूत्र से उसमें पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

- धावतोऽश्वात् पतति (वह दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है) - यह पतन क्रिया में ध्रुव अर्थात् अवधिभूत 'धावत् अश्व' की 'ध्रुवमपापेऽपादानम्' सूत्र से अपादान संज्ञा होती है और प्रकृत सूत्र से उसमें पञ्चमी विभक्ति हुई।

३. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम् (वा०)

पापाज्जुगुप्सते, विरमति। धर्मात् प्रमाद्यति।

अर्थ - जुगुप्सा, विराम और प्रसाद अर्थों वाली धातुओं के योग में इनके विषय अर्थात् जिस वस्तु से घृणा आदि हो उसकी अपादान संज्ञा होती है।

उदाहरण - पापात् जुगुप्सते (वह पापा से घृणा करता है) - यहाँ जुगुप्सार्थक गुप् धातु के विषय 'पाप' की प्रकृत वार्तिक से अपादान संज्ञा और 'अपादाने पञ्चमी' से पञ्चमी विभक्ति हुई।

पापाद् विरमति (वह पाप से दूर होता है)। धर्मात् प्रमाघति (वह धर्म में भूल करता है)।

४. भीत्रार्थानां भयहेतुः।

अयार्थानां त्राणार्थानां च प्रयोगे हेतुरपादानं स्यात्। चोराद्विभेति। चोरात्त्रायते भयहेतुः किम्? अख्ये विभक्तेः त्रायते वा।

अर्थ - भय अर्थ वाली और त्राण (रक्षा) अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में भय का जो हेतु है, उसकी अपादान सञ्ज्ञा होती है अर्थात् जिससे भय हो या जिससे रक्षा की जाये वह अपादान कारक होता है।

उदाहरण - चोरात् विभेति (चोर से डरता है) में प्रकृत सूत्र से भय के हेतु चोर की अपादान संज्ञा होने से उसमें अपादाने पञ्चमी सूत्र से पञ्चमी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'चोरात् त्रायते' (चोर से रक्षा करता है) में भय को हेतु चोर की अपादान संज्ञा होकर उसमें पञ्चमी विभक्ति हुई है। चोर से रक्षा करने से अभिप्राय उसके द्वारा किये जाने वाले वस्तु नाश की निवृत्ति का उपाय किया जाना है।

सूत्र में 'भयहेतुः' शब्द का प्रयोग करने का अभिप्राय यही है कि जहाँ भय का हेतु उपस्थित नहीं होगा वहाँ अपादान संज्ञा भी नहीं होगी। जैसे- अरण्ये विभेति त्रायते वा (जंगल में डरता है या रक्षा करता है) में अरण्य भय का हेतु नहीं है, बल्कि उसमें रहने वाले सिंह आदि की भय के कारण है अतः उसकी अपादान संज्ञा नहीं होती। अरण्य के आधार रूप होने से यहाँ अधिकरण कारक होकर सप्तमी विभक्ति हुई है।

५. पराजेरसोढः।

पराजेः प्रयोगेऽ सहयोऽर्थोऽपादानं स्यात्। अध्ययनात्पराजयते। गलायतीत्यर्थः। असोढ़ः किम्? शत्रूनपराजयते। अभिभवतीत्यर्थः।

अर्थ - यदि जि धातु के पूर्व परा उपसर्ग लगा हो तो जो असह्य पदार्थ होता है। उसकी अपादान संज्ञा होती है।

उदाहरण - अध्ययनात् पराजयते (वह अध्ययन से भागता है) - यहाँ परा उपसर्गपूर्वक जिधातु (अकर्मक पराजयते) के प्रयोग में कर्त्ता 'अध्ययन' को नहीं सहन कर पा रहा है अतः प्रकृत सूत्र से उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादाने 'पञ्चमी' से उसमें पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

सूत्र में 'असोढः ' पद का प्रयोग क्यों किया? ताकि असह्य अर्थ की ही अपादान संज्ञा हो। यथा, शत्रून् पराजयते (वह शत्रु को हराता है) में शत्रु के अभिभवनीय होने के कारण उसकी अपादान संज्ञा नहीं होती)।

वारणार्थानामीप्सितः।

प्रवृर्तिविधातो वारणम्, वारणार्थानां धातूनां प्रयोगे ईप्सितोऽर्थोऽपादानं स्यात् यवेभ्यो गां वारयति। ईप्सितः किम्? यवेभ्यो गां वारयति क्षेत्रे)

अर्थ - 'वारण' शब्द का अर्थ है प्रवृत्ति का विधात अर्थात् काम में लगे हुए को हटा देना। कारण अर्थों वाली धातुओं के योग में ईप्सित (अभीष्ट) पदार्थ की अपादान संज्ञा होती है।

उदाहरण - यवेभ्यः गां वारयति (जौ से गाय को हटाता है) - इस उदाहरण में गाय को हटाने वाले के लिए 'यव' इष्ट है अतः उसकी अपादान संज्ञा हुई है। अपादान कारक होने से यहाँ पञ्चमी विभक्ति हुई है।

सूत्र में ईप्सित कहने का क्या अभिप्राय है? इसका उत्तर यह है कि जो कर्त्ता की ईप्सित नहीं है उसकी अपादान संज्ञा नहीं होती है। जैसे-यवेभ्यः गां वारपति क्षेत्रे (खेत में जौ से गाय को हटाता है) में क्षेत्र ईप्सित नहीं है अतः उसमें अपादान न होकर पंचमी विभक्ति भी नहीं हुई है।

यहाँ 'ईप्सित' शब्द का अर्थ अभिप्रेत नहीं लेना चाहिए। यहाँ यह क्रिया शब्द है। जिसमें आप् धातु से 'सन्' प्रत्यय करके सन्नन्त से 'क्त्' प्रत्यय होता है। इस प्रकार सम्बन्ध करने के लिए चाहा गया ईप्सित होता है। यही अर्थ मानने पर 'अग्नेः' माणवकं (अग्नि से बच्चे को हटाता है) में अग्निईप्सित होने से अपादान हो जाती है।

७. अन्तर्धी येनादर्शनमिच्छति।

व्यवधाने सति यत्कर्तृक स्यात्मनो दर्शनस्याभावमिच्छति तदपादनं स्यात्। मातुर्निलीयते कृष्णः। अन्तधौ किम्? चौरान् न दिदृक्षते। इनतिग्रहणं किम्? अदर्शनेच्छायां सत्यां सत्यपि दर्शने यथा स्यात्। देवदत्ताद्यज्ञदत्तो निलीयते।

अर्थ - अन्तर्धान (व्यवधान, छुपना) होने की क्रिया में कर्त्ता जिससे छुपना चाहता है उसकी अपादान संज्ञा होती है

उदाहरण - मातुर्निलीयते कृष्णः (कृष्ण माता से छिपता है) - यहाँ कर्त्ता कारक कृष्ण अपनी माता से अपने दर्शन के अभाव की इच्छा करता है) अतः प्रकृत सूत्र से 'मातृ' की अपादान संज्ञा होती है और अपादाने पञ्चमी से उसमें 'पञ्चमी विभक्ति' का प्रयोग हुआ।

सूत्र में 'अन्तर्धी' पद का प्रयोग क्यों किया? ताकि व्यवधान होने पर अपादान संज्ञा हो। यथा, चौरान् न दिदृक्षते (वह चोरों को नहीं देखना चाहता है। ये चोर के सामने होने के कारण अपादान संज्ञा नहीं होती अतएव कर्म संज्ञा होकर उसमें द्वितीया विभक्ति हुई)

८. आख्यातोपयोगे

नियमपूर्वक विद्यास्वीकारे वक्ता प्राक्संज्ञः स्यात्। उपाध्यापाद् अधीते। उपयोगे किम्? नतस्य गाथां शृणोति।

अर्थ - उपयोग अर्थात् नियमपूर्वक विद्या पढ़ने में आख्याता (पढ़ाने वाला) की अपादान संज्ञा होती है।

उदाहरण - उपाध्यायाद् अधीते (वह उपाध्याय से नियमपूर्वक पढ़ता है) यहाँ कर्त्ता उपाध्याय से नियम विशेषपूर्वक अध्ययन करता है। अतः प्रकृत सूत्र से 'उपाध्याय' की अपादान संज्ञा हुई और 'अपादाने पञ्चमी' से उसमें पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

सूत्र में 'उपयोगे' पद का प्रयोग क्यों किया? क्योंकि नियमपूर्वक विधान न होने पर आख्याता की अपादान संज्ञा नहीं होती। यथा नटस्थ ताथां श्रृणोति (वह नट की कथा सुनता है) में नट की अपादान संज्ञा न होने से सम्बन्ध मात्र में षष्ठी विभक्ति हुई।

९. जनिकर्तुः प्रकृतिः।

जायमानस्य हेतुरपादानं स्यात्। ब्रह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते।

अर्थ - जन धातु के कर्त्ता (अर्थात् जायमान) को कारण की अपादान संज्ञा होती है।

उदाहरण - ब्रह्मण: प्रजा: प्रताप-ते (ब्रह्म से प्रजायें उत्पन्न होती हैं) - यहाँ जन् धातु (प्रपायन्ते) का कर्त्ता 'प्रजा' और उसका कारण है 'ब्रह्मन् ') अतएव ब्रह्मन् की प्रकृत सूत्र संज्ञा हुई और 'अपादाने पञ्चमी' से पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

१०. भुवः प्रभवः।

भवनं भूः। भूकर्त्तुः प्रभवस्तथा। हिमवती गंगा प्रभवति। तत्र प्रकाशते इत्यर्थः।
से अपादान

अर्थ - भू धातु का जो कर्त्ता, उसका प्रभव (प्रथम प्रकाशन का स्थान) अपादान संज्ञक होता है।

उदाहरण - हिमवतो गंगा प्रभवति (हिमालय से गंगा प्रादुर्भूत होती है) यहाँ भू धातु (प्रभवति) का कर्त्ता है 'गंगा' उसका प्रभव है 'हिमवत्' अतएव प्रकृत सूत्र से उसकी अपादान संज्ञा हुई और 'अपादाने पञ्चमी' से उसमें पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग हुआ।

११. ल्यब्लोपे कर्मव्यधिकरणे च (वार्तिक)।

प्रासाक्षत् प्रेक्षते। आसनात् प्रेक्षते। प्रासादमारुह्य आसने उपविश्य प्रेक्षत इत्यर्थ। श्वसुराज्जिह्रेति श्वसुरं वीक्ष्य इत्यर्थः।

अर्थ - ल्यप् और क्त्वा प्रत्ययान्त क्रिया का वाक्य में होने पर उसके कर्म और अधिकरण कारण में पञ्चमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - प्रासादात् प्रेक्षते (वह महल पर चढ़कर देखता है) - इस वाक्य का आशय 'प्रासादम् आरुध्य प्रेक्षते'। यहाँ ल्यप् प्रत्ययान्त 'आरुध्य' का प्रयोग न होने पर उसके कर्म प्रासाद में पंचमी विभक्ति प्रकृत वार्तिक से हुई।

- आसनात् प्रेक्षते - (वह आसन पर बैठकर देखता है) - इस वाक्य का आशय है, 'आसने उपविश्य प्रेक्षते। यह ल्यप् प्रत्ययान्त उपविश्य का प्रयोग न होने के कारण उसके अधिकरण 'आसन' में प्रकृति वार्तिक से पञ्चमी विभक्ति हुई।

- श्वसुरात् जिह्वेति - (वह श्वसुर को देखकर लज्जा करती है) इस वाक्य का आशय 'श्वसुरं वीक्ष्य निहनेते'।

१२. गम्यमानाऽपि क्रिया, कारकविभक्तिनां निमित्तम् (वार्तिक)। कस्मात्वम्? नद्याः।

अर्थ - वाक्य में क्रिया गम्यमान (प्रयुक्त न होने पर भी प्रकरणादि से ज्ञानमान) होने पर भी कारक - विभक्ति का निमित्त होती है।

उदाहरण - कस्मात् त्वम्- (तुम कहाँ से) इस वाक्य का आशय है 'कस्मात् त्वम् आगतोऽसि (तुम कहाँ से आ रहे हो)? नद्या: (नदी से) अर्थात् नद्याः आगतोऽस्मि (मैं नदी से आ रहा हूँ) यहाँ वाक्य में 'आगमन' क्रिया का प्रयोग न होने पर भी वह प्रकरण से गम्यमान है अतएव 'किम्' तथा 'नदी' अपादान संज्ञा होकर उसमें पञ्चमी विभक्ति हो जाती है।

इसी प्रकार उपर्युक्त स्थलों (प्रासादात् प्रेक्षते, आसनात् प्रेक्षते, श्वसुरात्, जिह्वेति) में ल्यप् प्रत्यायान्त क्रिया पदों के प्रयुक्त न होने पर भी गम्यमान होने के कारण कर्म और अधिकरण काल में पञ्चमी विभक्ति हुई।

१३. यतश्चाध्वकाल निर्माणं तत्र पञ्चमी (वार्तिक)

तसुक्तादध्वनः प्रथमासातम्यौ (वार्तिक)
कालात् सप्तमी च वक्तव्या (वार्तिक)।

वनाद् ग्रामो योजनं योजने बा। कार्तिक्याः आग्रहायणी मासे।

अर्थ - जहाँ से मार्ग और काल का परिमाण (नाप) लिया जाय वहाँ पञ्चमी विभक्ति होती है। उस (मार्ग तिथि में प्रयुक्त पञ्चमी विभक्ति) से अन्वित मार्गवाली (दूरी वाचक) शब्द में प्रथमा और सप्तमी विभक्ति होती है।

कालवाचक शब्द में सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - वनाद् ग्रामो योजनं योजने वा (वन में गाँव योजन अर्थात् चार कोश दूर है)। यहाँ 'वन' से मार्ग का परिमाण होने के कारण 'यतश्च.' वार्तिक से उसमें पञ्चमी विभक्ति हुई और मार्गवाची योजन में 'तद्युक्ताद्' वार्तिक से प्रथमा अथवा सप्तमी विभक्ति हुई है।

- कार्तिक्या आग्रहायणी मासे (कार्तिकी पूर्णिमा से आग्रहायण की पूर्णिमा एक महीने पर होती है)। यहाँ 'कार्तिकी' से काल का परिमाण होने के कारण 'यतश्च.' वार्तिक में उसमें पञ्चमी विभक्ति और कालवाचक मास में 'कालात्' वार्तिक से सप्तमी विभक्ति हुई है।

१४. अन्यारादितर्तेदिक्शब्दाञ्चूत्तरपदाजाहियुक्ते।

एतैर्योगे पञ्चमी स्यात्। अन्येत्यर्थ। इतरग्रहणं प्रपञ्चार्थम्। अन्योभिन्नइतरो वा कृष्णात। आराद् वनात्। त्र+ते कृष्णात्। पूर्वो ग्रामात्। दिशि दृष्टो शब्दो दिक्शब्दः। तेन सम्प्रति देशकालवृत्तिना योगेऽपि भवति। चैत्रात्पूर्वः फाल्गुनः। अवयवाचियोगे तु न। 'तस्य परमाप्रेदितम्' इति निर्देशात्। पूर्व कायस्य। अञ्चन्तरपदस्य तु दिक्शब्दत्वेऽपि षष्ठ्यतर्थ. इति षष्ठी बाधितुं पृथग्ग्रहणम्। प्राक् प्रत्यग्वा ग्रायात्। आच्-दक्षिणा ग्रामात्। आहि-दक्षिणाहि ग्रामात्। अपादाने पञ्चमी वा सेव्यो हरिः। 'अपपरिवहि: इति समास विधानात् ज्ञापवाद् बहिर्योगे पञ्चमी। ग्रामाद् बहिः।

अर्थ - अन्य, आरात्, इतर, त्र+र्त, दिशावाची शब्द (पूर्व, उत्तर आदि) जिसके उत्तर पद में अञ्चु हो (प्रत्यक, प्राक आदि) अच् प्रत्ययान्त (दक्षिणा, उत्तरा, पूर्वा आदि) आहि प्रत्ययान्त (दक्षिनाहि, उत्तराहि आदि) शब्दों के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।

सूत्रस्थ 'अन्य' शब्द से अन्य अर्थ वाले सभी शब्दों (भिन्न, पर, इतर आदि) का ग्रहण होता
है, पुनश्च सूत्र में 'इतर' शब्द का ग्रहण दिग्दर्शन मात्र के लिये हुआ है।
उदाहरण - अन्यो भिन्न इतरो वा कृष्णात् (कृष्ण से भिन्न) - यहाँ अन्य, भिन्न अथवा इतर
शब्द के योग में प्रकृत सूत्र से 'कृष्ण' में पञ्चमी विभक्ति हुई।

- आराद् वनात् (वन से दूर या समीप), त्र+ते कृष्णात् (कृष्ण के बिना)।

- पूर्वो ग्रामात् (गाँव से पूर्व दिशा में) - यहाँ दिशावाची 'पूर्व' शब्द के योग में प्रकृत सूत्र से 'ग्राम' में पञ्चमी विभक्ति हुई है। इस सूत्र में 'दिक्शब्द' से दिशि दष्टः शब्द का अर्थ अभिप्रेत है। तथा इसमें देश और काल दोनों अर्थों में प्रयुक्त होने के साथ पञ्चमी विभक्ति होती है। इस प्रकार जब दिशा बताने वाले शब्द समय का क्रम बताने के लिए समयवाची शब्दों के साथ आते हैं तो वहाँ भी पञ्चमी विभक्ति होगी। जैसे- चैत्रात् पूर्वः फाल्गुनः (चैत्र से पहले फाल्गुन रहता है) में 'चैत्र' से समय का क्रम बताया गया है इसलिए यहाँ दिक्वाची पूर्व शब्द के योग में 'चैत्र' शब्द में पञ्चमी विभक्ति हुई है।

जिन शब्दों में 'अञ्चु' धातु उत्तर पद में है उनके योग में भी पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे- प्राक् - प्रत्यक् वा ग्रामात् (गाँव से पूर्व या पश्चिम) में 'प्राक्' और 'प्रत्यक्' शब्द 'अञ्चु' उत्तर पद वाले दिशावाची शब्द हैं अतः इनके योग में प्रकृत सूत्र से पञ्चमी विभक्ति हुई है। अन्यथा यहाँ षष्ठी अतसर्थप्रत्ययेन सूत्र से षष्ठी विभक्ति प्राप्त होती है।

दक्षिणा ग्रामात् (गांव से दक्षिण में) में दक्षिणा शब्द दक्षिणादांच्' सूत्र से भाच् प्राययान्त है. अतः इसके योग में ग्राम शब्द में पंचमी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार दक्षिणाहिग्रामात् (गांव से दक्षिण में) दक्षिणाहि' शब्द आहि च दूरे' सूत्र से आहि' प्रत्ययान्त है अतः इसके योग में प्रकृत सूत्र ग्राम शब्द में पंचमी विभक्ति हुई है।

१५. अपपरी वर्जने।

एतौ वर्जने कर्मप्रवचनीयो स्तः।

अर्थ - अप और परि शब्दों से वर्जन अर्थ द्योतित होने पर कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है।

उदाहरण - अप हरेः संसारः (हरि के बिना संसार) में 'अप' शब्द का अर्थ अलग करता है अतः प्रकृत सूत्र से इसके योग में 'हरि' शब्द की कर्मप्रवचनीय संज्ञा हुई। तथा 'पञ्चम्मपाङ्पारेभिः  से कर्म प्रवचनीय संज्ञक 'अप' के योग में पञ्चमी विभक्ति हुई। इसी प्रकार 'परि हरेः संसार' (हरि के बिना संसार) में भी 'परि' शब्द के योग में 'वर्जन' अर्थ में हरि में कर्मप्रवचनीय संज्ञा होकर पञ्चमी विभक्ति हुई है। अन्यथा 'लक्षण' अर्थ वाला 'परि' शब्द होने पर 'लक्षणोत्थंभूताख्यान' सूत्र में कर्म प्रवचनीय संज्ञा होकर द्वितीया विभक्ति होगी, जैसे- हरि परि।

१६. आङ्मर्यादावचने -

आङ्मर्यादायामुक्तसंज्ञः स्यात्। वचनग्रहणाद् अभिविधावपि।

अर्थ - 'आङ्:' की मर्यादा और अभिविध अर्थ में कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। तेन बिना मर्यादा, तेन सह अभिविधः अर्थात् सीमा को छोड़कर 'मर्यादा' होती है और सीमा का ग्रहण करके 'अभिविध' होती है।

उदाहरण आपाटलिपुत्रात् वृष्टो देवः' (पटना तक वर्षा हुई) में पटना को छोड़कर वर्षा में मर्यादा और पटना को मिलाकर वर्षा में अभिविधि होती है। यहाँ 'आङ्' शब्द की मर्यादा और अभिविधि के अर्थ में कर्मप्रवचनीय संज्ञा होकर उसके योग में पञ्चम्मपापरिभिः सूत्र से पञ्चमी विभक्ति हुई।

१७. पञ्चम्यपापरिभिः।

एतैः कर्मप्रवचनीयैर्योगे पञ्चमी स्यात्। अप हरेः परि हरेः संसारः। परिरत्र वर्जने।
लक्षणादौ तु हरिं परि। आ मुक्तेः संसारः। आ सकलाद् ब्रह्म।

अर्थ - कर्मप्रवचनीय संज्ञक अप्, आङ् परि के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - अप हरेः संसार (हरि के बिना संसार) में अप की 'अपपरी वर्जने' कर्मप्रवचनीय संज्ञा होकर प्रकृत सूत्र से पञ्चमी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'परि हरे: संसार (हरि के बिना संसार) में भी परि के योग में पञ्चमी विभक्ति जाननी चाहिए।

आ मुक्तेः संसार (संसार की अधिकार मुक्ति तक है) में कर्मप्रवचनीय संज्ञक 'आङ्' के योग में 'मुक्ति' शब्द में पञ्चमी विभक्ति हुई है। 'आङ्मर्यादावचने' सूत्र से आङ की मर्यादा के अर्थ में कर्मप्रवचनीय संज्ञा हुई है। इसी प्रकार 'आ सकलात् ब्रह्म' (ब्रह्म सभी में हैं) में आङ् अभिविधि के अर्थ में कर्मप्रवचनीय संज्ञक है तथा प्रकृत सूत्र से कर्मप्रवचनीय को योग में यहाँ पञ्चमी विभक्ति हुई।

१८. प्रतिः प्रतिनिधिप्रतिदानयोः।

अर्थ - प्रतिनिधि के विषय में और प्रतिदान के विषय में प्रति की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। मुख्य के सदृश को प्रतिनिधि कहते हैं तथा दिये हुए को वापस लौटाना प्रतिदान कहलाता है।

उदाहरण - प्रद्युम्नः कृष्णात् प्रति (प्रद्युम्न कृष्ण का प्रतिनिधि हैं) में 'प्रति' शब्द प्रतिनिधि अर्थ में प्रयुक्त होने से प्रकृत से इसकी कर्मप्रवचनीय संज्ञा हुई है। कर्मप्रवचनीय प्रति के योग में 'प्रतिनिधिप्रतिदाने च यस्मात्' सूत्र से जिसका वह (प्रद्युम्न) प्रतिनिधि है उसमें (कृष्ण में) पञ्चमी विभक्ति हुई है।

तिलेभ्यः प्रतियच्छति मासान् (तिल से उड़द बदलता है) में प्रतिदान (अदल बदल करना) अर्थ में प्रति की कर्मप्रवचनीय संज्ञा है अतः जिससे उड़दों को बदला गया है उस (तिल) में पञ्चमी विभक्ति हुई है।

१९. प्रतिनिधि प्रतिदाने य यस्मात्।

अत्र कर्मप्रवचनीयैर्योगे पञ्चमी। प्रद्युम्नः कृष्णात् प्रति। तिलेभ्यः प्रतियच्छति माषान्।

अर्थ - जिसका प्रतिनिधि है और जिसका प्रतिदान (अदल-बदल करना) है उसमें कर्मप्रवचनीय के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - प्रद्युम्न: कृष्णात् प्रति (प्रद्युम्न कृष्ण का प्रतिनिधि हैं) में कर्मप्रवचनीय संज्ञक प्रति- के योग में जिसका प्रतिनिधि है उस (कृष्ण) में पञ्चमी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'तिलेभ्यः प्रतिपच्छति माषान्' (तिल से उड़द बदलता है) में भी कर्मप्रवचनीय संज्ञक प्रति का योग में पञ्चमी विभक्ति हुई है।

२०. अकर्तर्पणे पञ्चमी।

कर्तृवर्जितं यदृणं हेतुभूतं तः पञ्चमी स्यात्। शता द् बद्धः। अकर्तरि किम्? शतेन बन्धितः।

अर्थ - कर्तृभिन्न हेतुभूत त्र+णवाचक शब्द से पञ्चमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - शताद् बद्ध: (सौ रुपये के त्र+ण के कारण बँधा है) में त्र+ण बन्धन का कारण होने से उसमें पञ्चमी विभक्ति हुई है। सूत्र में 'अकर्तरि' क्यों पढ़ा गया है इसका उत्तर यह है कि जहाँ +णदाता कर्ता नहीं होगा वहाँ त्र+ण के हेतु पञ्चमी विभक्ति होगी इसलिए शतेन बन्धित: (सौ रुपये से बँधा है) में सौ रुपये त्र+ण है और बन्धन क्रिया का प्रयोजन होने से त्र+ण कर्तृसंज्ञक भी है। अतः उसमें पञ्चमी न होकर तृतीया विभक्ति हुई है।

२१. विभाषागुणेऽस्त्रियाम्।

गुणे हेतावस्त्रीलिङ्गं पञ्चमी वा स्यात्। जाड्याद् जाडयेन वा बद्धः गुणे किम्? धनेन कुलम् अस्त्रियाँ किम्? बुद्धया मुक्तः। 'विभाषा' इति योगविभागाद् अगुणे स्त्रियाँ च क्वचित्। धूमादग्निमान्। नास्ति घटोऽनुपलब्धेः।

अर्थ - स्त्रीलिंगभिन्न गुणवाचक हेतु में विकल्प से पञ्चमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - जाड्यात् जाड्येन व बद्ध: (वह मूर्खता के कारण पकड़ा गया) - यहाँ गुणवाचक 'जाड्य' शब्द नपुंसकलिङ्ग में है तथा हेतु है अतः प्रकृत सूत्र से उसमें पञ्चमी विभक्ति विकल्प में हुई। पक्ष में 'हेतौ' सूत्र से तृतीया विभक्ति होती है।

सूत्र में 'गुण' ग्रहण किसलिए किया गया है? इसके उत्तर में कहा जाता है कि हेतु के गुण होने पर भी पञ्चमी विभक्ति विकल्प से होगी जैसे धनेन कुलम् (धन से कुल) में धक हेतु शब्द भी है और स्त्रीलिंग भिन्न शब्द भी किन्तु गुणवाचक न होने के कारण यहाँ पञ्चमी विभक्ति नहीं हुई। हेतु में तृतीया विभक्ति हुई है।

'अस्त्रियाम्' कहने का क्या प्रयोजन है? इसका समाधान यह है कि यदि हेतु वाचक शब्द स्त्रीलिंग होगा तब विकल्प से पञ्चमी विभक्ति नहीं होगी। जैसे- बुद्ध्या मुक्तः (बुद्धि के कारण मुक्त हो गया) में बुद्धि गुण भी है और मुक्ति का हेतु भी है किन्तु स्त्रीलिंग शब्द होने से यहाँ पञ्चमी विभक्ति न होकर 'हेतौ' सूत्र से केवल तृतीय विभक्ति हुई।

२२. पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्।

एभिर्योगं तृतीया स्यात् पञ्चमी द्वितीये च। अन्यतरस्यां ग्रहणं समुच्च्याथम् पञ्चमीद्वितीये चातुवर्तते। पृथग्रामेण रामाद् रामं वा। एवं विना, नाना।

अर्थ - पृथक्, विना, नाना- इन शब्दों के योग में विकल्प से तृतीया विभक्ति होती है पक्ष में पञ्चमी और द्वितीया विभक्ति भी होती है।

उदाहरण - पृथक् रामेण रामात् रामं वा (राम से भिन्न) में पृथक् शब्द के योग में गम् शब्द में तृतीया, पञ्चमी एवं द्वितीया विभक्ति हुई है इसी प्रकार 'बिना रामेण रामात् रामं वा' (राम के बिना) और 'नाना रामेण रामात् राम वा' (राम से भिन्न) इन उदाहरणों में क्रमशः 'बिना' और 'नाना' शब्दों के योग में एक शब्द में तृतीया, पञ्चमी और द्वितीया विभक्ति हुई है।

२३. करणे च स्तोकाल्पकृच्छकतिपयस्यासत्व वचनस्य।

एभ्योऽद्रव्यवचनेभ्यः करणे तृतीयापञ्चभ्यौ स्तः। स्तोकेन स्तोकाद्वा मुक्तः। द्रव्ये तु स्तोकेन विषेण हतः।

अर्थ - स्तोक (थोड़ा) अल्प, वृच्छृ (कष्ट से) और कतिपय इन अद्रव्यवाची शब्दों के कारण में विकल्प से तृतीया तथा पञ्चमी विभक्ति होती हैं। जब ये शब्द द्रव्य का संकेत नहीं करते और करण कारक में प्रयुक्त होते हैं ऐसी दशा में ये शान्त विशेषण न होकर क्रिया विशेषण होते हैं।

उदाहरण - स्तोकेन स्तोकात् वा मुक्तः (थोड़े से ही मुक्त हो गया) में 'स्लोक' शब्द किसी द्रव्य की विशेषता नहीं बताता है अपितु करण है अतः उससे तृतीय तथा पञ्चमी विभक्ति हो गयी। इसी प्रकार 'अल्पेन अल्पांत् वा मुक्तः' (अल्प प्रयास से ही मुक्त हुआ) आदि उदाहरणों में भी अद्रव्यवाची अल्प आदि शब्दों में तृतीया एवं पञ्चमी विभक्ति हुई है।

सूत्र में 'असत्ववचनस्य' ग्रहण क्यों किया गया है? इसका उत्तर है कि जब 'स्तोक' आदि शब्द किसी द्रव्य की विशेषता बताएँ तो तृतीय विभक्ति ही होगी पञ्चमी नहीं। जैसे- स्तोकेन विषेण हत: (थोड़े से विष से मारा गया) में 'स्तोक' शब्द द्रव्यवाची विषय का विशेषण है अतः यहाँ केवल तृतीया विभक्ति हुई है। प्रकृत सूत्र से की जाने वाली पञ्चमी विभक्ति नहीं हुई।

२४. दूरान्तिकार्थेभ्या द्वितीया च।

एभ्यो द्वितीया स्याच्चात्पञ्चमीतृतीये प्रातिपदिकार्थमात्रे विधिरयम्। ग्रामस्य दूरम् दूरात् दूरेण वा, अन्तिकम् अन्तिकात् अन्तिकेन वा। असत्त्ववचनस्य इत्यनुवृत्तनेंहदूरः पन्थाः।

अर्थ - दूर तथा अन्तिक अर्थ वाले शब्दों से द्वितीया, पञ्चमी और तृतीया विभक्ति होती है। प्रस्तुत सूत्र में द्वितीया, पञ्चमी और तृतीया विभक्ति का विधान प्रातिपदिकार्थमात्र में हुआ है।

ग्रामस्य दूरं दूरात्, दूरेण वा अन्तिकम् अन्तिकात्, अन्तिकेन वा (गाँव से दूर या समीप) यहाँ दूर और अन्तिक शब्द में प्रकृत सूत्र से द्वितीया, पञ्चमी अथवा तृतीया विभक्ति हुई है। करणे 'च.'सूत्र से 'असन्त्वचनस्य' की अनुवृत्ति होने के कारण द्रव्यवाची दूर और अन्तिक शब्दों में द्वितीया आदि विभक्तियाँ नहीं होतीं। यथा, दूर: पन्थाः (दूर मार्ग) यहाँ 'पन्था:' द्रव्य है उसका विशेषण 'दूर' शब्द सन्त्वचन।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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